ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५६

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त ५६ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - द्यावा पृथ्वी । छंद-त्रिष्टुप, ५-७ गायत्री मही द्यावापृथिवी इह ज्येष्ठे रुचा भवतां शुचयद्भिरकैः । यत्सीं वरिष्ठठे बृहती विमिन्वत्रुवद्धोक्षा पप्रथानेभिरेवैः ॥१॥ जब अत्यन्त श्रेष्ठ तथा बृहद् द्यावा-पृथिवी को हवाओं से प्रेरित होने वाले बादल चारों ओर से आवृत कर लेते हैं तथा ध्वनि करते हैं, तब ज्येष्ठ तथा महान् द्यावा-पृथिवी तेजस्वी स्तोत्रों द्वारा तेज-सम्पन्न हों ॥१॥ देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरुक्षमाणे । ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरकैः ॥२॥ पूजन करने योग्य, हिंसा न करने वाली, अभीष्ट की वर्षा करने वाली, यज्ञ से सम्पन्न, विद्रोह न करने वाली, देवताओं को पैदा करने वाली तथा यज्ञ सम्पन्न करने वाली तेजस्वी द्यावा-पृथिवी देवियाँ, देवताओं के साथ यजन योग्य तेजस्वी मन्त्रों से सम्पन्न हों ॥२॥ स इत्स्वपा भुवनेष्वास य इमे द्यावापृथिवी जजान । उर्वी गभीरे रजसी सुमेके अवंशे धीरः शच्या समैरत् ॥३॥ जिन सद्बुद्धि प्रदाता देव ने अपने कौशल के द्वारा विस्तृत, गम्भीर तथा आधाररहिता द्यावा-पृथिवीं को उत्पन्न किया तथा दोनों लोकों को विनिर्मित किया, वहीं सत्कर्म करने वाले देव समस्त लोकों में संव्याप्त हैं ॥३॥ नू रोदसी बृहद्भिर्नो वरूथैः पत्नीवद्भिरिषयन्ती सजोषाः । उरूची विश्वे यजते नि पातं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥४॥ हे द्यावा-पृथिवि ! आप दोनों हमारे लिए अन्न प्रदान करने की कामना वाली तथा परस्पर प्रेम से रहने वाली हों। आप दोनों विशाल क्षेत्र वाली तथा सबके द्वारा पूजने वाली होकर हमें गृहिणी से सम्पन्न श्रेष्ठ भवन प्रदान करें तथा हमारी सुरक्षा करें। हम अपने सत्कर्म के द्वारा दासों तथा रथों से सम्पन्न हों ॥४॥ प्र वां महि द्यवी अभ्युपस्तुतिं भरामहे । शुची उप प्रशस्तये ॥५॥ हे पवित्र एवं तेजस्वी आकाश-भूमण्डल ! स्तुति के लिए आपके निकट आकर हम आप दोनों के लिए पर्याप्त मात्रा में स्तुतियों का उच्चारण करते हैं ॥५॥ पुनाने तन्वा मिथः स्वेन दक्षेण राजथः । ऊह्याथे सनादृतम् ॥६॥ हे दोनों देवियों ! अपनी अतुलित शक्ति से आप द्युलोक और पृथिवी लोक इन दोनों को पवित्र करती हुई प्रदीप्त होती हैं और सदैव यज्ञ का निर्वाह करने वाली हैं ॥६॥ मही मित्रस्य साधथस्तरन्ती पिप्रती ऋतम् । परि यज्ञं नि षेदथुः ॥७॥ हे व्यापक आकाश और भू देवियो ! आप अपने सखा यजमान को अभीष्ट फल प्रदान करती हैं। यज्ञ की पूर्णता के लिए संरक्षण देती हुई यज्ञ को अवलम्बन प्रदान करती हैं ॥७॥

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