ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४२

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ४२ ऋषि - त्रसदस्युः पौरुकुत्सः देवता - त्रसदस्यु, ७-१० इन्द्रवरुणौ । छंद त्रिष्टुप मम द्विता राष्ट्र क्षत्रियस्य विश्वायोर्विश्व अमृता यथा नः । क्रतुं सचन्ते वरुणस्य देवा राजामि कृष्टरुपमस्य वद्रेः ॥१॥ हम क्षत्रिय जाति में उत्पन्न तथा समस्त मनुष्यों के राजा हैं। हमारे दो तरह के राष्ट्र हैं। जिस प्रकार समस्त देवता हमारे हैं, उसी प्रकार समस्त मनुष्य भी हमारे ही हैं। हम सौन्दर्यवान् तथा समीपस्थ वरुण हैं। समस्त देवता हमारे यज्ञ की परिचर्या करते हैं। हम मनुष्यों के भी शासक हैं ॥१॥ अहं राजा वरुणो मह्यं तान्यसुर्याणि प्रथमा धारयन्त । क्रतुं सचन्ते वरुणस्य देवा राजामि कृष्टरुपमस्य वनेः ॥२॥ हम ही अधिपति वरुण हैं। समस्त देवता हमारे ही महान् सामर्थ्य को धारण करते हैं, हम सौन्दर्यवान् तथा समीपस्थ वरुण हैं। समस्त देवता हमारे यज्ञ की परिचर्या करते हैं और हम मनुष्यों के भी स्वामी हैं ॥२॥ अहमिन्द्रो वरुणस्ते महित्वोर्वी गभीरे रजसी सुमेके । त्वष्टेव विश्वा भुवनानि विद्वान्त्समैरयं रोदसी धारयं च ॥३॥ हम ही इन्द्र तथा वरुण हैं। अपनी महानता के कारण विस्तृत, गम्भीर तथा श्रेष्ठ रूप वाली द्यावा-पृथिवी हम ही हैं। हम मेधावी हैं। हम त्वष्टा देवता की तरह समस्त भुवनों को प्रेरित करते हैं तथा द्यावा-पृथिवी को धारण करते हैं ॥३॥ अहमपो अपिन्वमुक्षमाणा धारयं दिवं सदन ऋतस्य । ऋतेन पुत्रो अदितैर्ऋतावोत त्रिधातु प्रथयद्वि भूम ॥४॥ हमने ही सिंचनीय जल की वर्षा की है तथा जल के स्थानभूत स्वर्ग लोक में आदित्य की स्थापना की हैं। हम अदिति के पुत्र जल के लिए ऋतवान् हुए हैं। हमने ही तीन भुवनों वाली सृष्टि को विस्तारित किया है ॥४॥ मां नरः स्वश्वा वाजयन्तो मां वृताः समरणे हवन्ते । कृणोम्याजिं मघवाहमिन्द्र इयर्मि रेणुमभिभूत्योजाः ॥५॥ हम ही श्रेष्ठ अश्वों वाले तथा युद्ध करने वाले योद्धा आहूत करते हैं। वे वीर युद्ध में रिपुओं से आवृत हो जाने पर हमें ही आहूत करते हैं। हम धनवान् इन्द्रदेव के रूप में युद्ध करते हैं। हम पराजित करने वाले बल से सम्पन्न होकर धूल उड़ाते हैं ॥५॥ अहं ता विश्वा चकरं नकिर्मा दैव्यं सहो वरते अप्रतीतम् । यन्मा सोमासो ममदन्यदुक्थोभे भयेते रजसी अपारे ॥६॥ हमने ही समस्त लोकों का सृजन किया है। हम कहीं भी न रुकने वाले दैव-बल से सम्पन्न हैं। कोई भी हमें रोक नहीं सकता। जब सोमरस तथा स्तोत्र हमें हर्षित करते हैं, तब असीम द्यावा-पृथिवी भयभीत हो जाती है ॥६॥ विदुष्टे विश्वा भुवनानि तस्य ता प्र ब्रवीषि वरुणाय वेधः । त्वं वृत्राणि शृण्विषे जघन्वान्त्वं वृताँ अरिणा इन्द्र सिन्धून् ॥७॥ हे वरुणदेव ! आपके कर्म को समस्त लोक जानते हैं। हे स्तुति करने वालो ! आप वरुणदेव की प्रार्थना करें। हे इन्द्रदेव ! आपने रिपुओं का संहार किया है, इसलिए आप विख्यात हैं। आपने अवरुद्ध की हुई नदियों को प्रवाहित किया है ॥७॥ अस्माकमत्र पितरस्त आसन्त्सप्त ऋषयो दौर्गहे बध्यमाने । त आयजन्त त्रसदस्युमस्या इन्द्रं न वृत्रतुरमध्देवम् ॥८॥ 'दुर्गह' के पुत्र पुरुकुत्स को बाँध दिये जाने पर इस राष्ट्र का पालन करने वाले सप्त ऋषि हुए थे। उन्होंने इन्द्र और वरुणदेवों की अनुकम्पा से पुरुकुत्स की स्त्री के लिए यजन किया तथा सदस्यु को उपलब्ध किया। वह त्रसदस्यु इन्द्रदेव के सदृश रिपुओं के संहारक तथा वे देवों के अर्धभूत (समीपस्थ) इन्द्रदेव के समान थे ॥८॥ पुरुकुत्सानी हि वामदाशद्धव्येभिरिन्द्रावरुणा नमोभिः । अथा राजानं त्रसदस्युमस्या वृत्रहणं ददथुरर्धदेवम् ॥९॥ हे इन्द्रावरुणो ! ऋषियों के द्वारा प्रेरणा दिये जाने पर पुरुकुत्स की स्त्री ने आपको आहुतियों तथा प्रार्थनाओं से हर्षित किया था। इसके पश्चात् आप दोनों ने उसे रिपु संहारक अर्धदेव राजा त्रसदस्यु को प्रदान किया था ॥९॥ राया वयं ससवांसो मदेम हव्येन देवा यवसेन गावः । तां धेनुमिन्द्रावरुणा युवं नो विश्वाहा धत्तमनपस्फुरन्तीम् ॥१०॥ सत्य का विस्तार करने वाले हे मित्र और वरुणदेवो! आप दोनों की तृप्ति के लिये सोमरस प्रस्तुत है। यज्ञशाला में पधारें, हम आपको आवाहन करते हैं। हे सोम! उपयाम पात्र में इन्द्र और वरुण देवों के लिए ही आपको नियमानुसार तैयार किया है, उन्हीं के निमित्त समर्पित करते हैं ॥१०॥

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