ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १६

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १६ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- इन्द्रः । छंद जगती प्र वः सतां ज्येष्ठतमाय सुष्टुतिमग्नाविव समिधाने हविर्भरे । इन्द्रमजुर्यं जरयन्तमुक्षितं सना‌द्युवानमवसे हवामहे ॥१॥ हम देवों में सर्वश्रेष्ठ इन्द्रदेव के निमित्त अत्यन्त दीप्तिमान् अग्नि में सुन्दर स्तुतियों के साथ आहुतियाँ समर्पित करते हैं। उन सनातन शक्ति सम्पन्न, कभी भी नष्ट न होने वाले, शत्रुनाशक तथा सोम से तृप्त इन्द्रदेव का तुम्हारे सं��क्षण के लिए आवाहन करते हैं॥१॥ यस्मादिन्द्राबृहतः किं चनेमृते विश्वान्यस्मिन्त्सम्भृताधि वीर्या । जठरे सोमं तन्वी सहो महो हस्ते वज्र भरति शीर्षणि क्रतुम् ॥२॥ इस विराट् संसार में इन्द्रदेव ही सबसे महान् हैं। वे पराक्रम से युक्त इन्द्रदेव उदर में सोमरस, शरीर में तेजस्वी बल, हाथ में वज्र तथा शिर में महान् ज्ञान धारण किए हुए हैं॥२॥ न क्षोणीभ्यां परिभ्वे त इन्द्रियं न समुद्रैः पर्वतैरिन्द्र ते रथः । न ते वज्रमन्वश्नोति कश्चन यदाशुभिः पतसि योजना पुरु ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप जब अपने द्रुतगामी अश्वों के द्वारा अनेक योजन पार करते हैं, उस समय आपकी शक्ति को द्यावा-पृथिवी भी नहीं नाप सकती । हे इन्द्रदेव! आपके रथ को पर्वत तथा समुद्र भी नहीं रोक सकते तथा कोई भी शक्तिशाली वीर आपके वज्र को नहीं रोक सकता ॥३॥ विश्वे ह्यस्मै यजताय धृष्णवे क्रतुं भरन्ति वृषभाय सश्चते । वृषा यजस्व हविषा विदुष्टरः पिबेन्द्र सोमं वृषभेण भानुना ॥४॥ शत्रुनाशक, पूज्य, बलशाली तथा स्तुत्य इन्द्रदेव के निमित्त सभी लोग यज्ञ करते हैं। हे यजमान तुम देवगणों को सोम रस प्रदान करने वाले तथा मेधावान् हो, अतः हविष्यान्न की आहुतियों सहित इन्द्रदेव की स्तुति करो। हे इन्द्रदेव! आप बलशाली एवं तेजस्वी रूप में सोम रस का पान करें ॥४॥ वृष्णः कोशः पवते मध्व ऊर्मिवृषभान्नाय वृषभाय पातवे । वृषणाध्वर्यू वृषभासो अद्रयो वृषणं सोमं वृषभाय सुष्वति ॥५॥ तृप्तिकारक, बलवर्धक, अन्नयुक्त मधुर सोमरस की धारा बलशाली इन्द्रदेव के पान के लिए स्रवित होती है। अध्वर्युगण बलशाली इन्द्रदेव की तृप्ति के लिए सुदृढ़ पत्थरों में (पीसकर) पुष्टिकारक सोमरस तैयार करते हैं॥५॥ वृषा ते वज्र उत ते वृषा रथो वृषणा हरी वृषभाण्यायुधा । वृष्णो मदस्य वृषभ त्वमीशिष इन्द्र सोमस्य वृषभस्य तृप्णुहि ॥६॥ हे शक्तिशाली इन्द्रदेव! आपका वज्र, आपका रथ, आपके अश्व तथा आपके आयुध सभी शक्ति से भरपूर हैं। आप बलशाली आनन्द का स्वामित्व करते हैं, अतः बलयुक्त सोमरस का पान करके आप तृप्त हों ॥६॥ प्र ते नावं न समने वचस्युवं ब्रह्मणा यामि सवनेषु दाधृषिः । कुविन्नो अस्य वचसो निबोधिषदिन्द्रमुत्सं न वसुनः सिचामहे ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुनाशक हैं। नाव के समान आप युद्ध में स्तोताओं का उद्धार करते हैं। यज्ञ स्थल में आपके स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए हम जाते हैं। हे ऐश्वर्य के भण्डार इन्द्रदेव ! कुँए के समान हम सोमरस से आपको सींचते हैं। आप हमारी प्रार्थना को स्वीकारें ॥७॥ पुरा सम्बाधादभ्या ववृत्स्व नो धेनुर्न वत्सं यवसस्य पिप्युषी । सकृत्सु ते सुमतिभिः शतक्रतो सं पत्नीभिर्न वृषणो नसीमहि ॥८॥ हे शतकर्मा इन्द्रदेव ! जिस प्रकार गाय घास खाने के बाद संतुष्ट होकर बछड़े को दूध पिलाने हेतु पहुँच जाती है, उसी प्रकार आप विपत्तियाँ आने से पूर्व ही हमारे पास पहुँचे। हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार पत्नियाँ पतियों को हर्षित करती हैं, उसी प्रकार हम उत्तम स्तोत्रों के द्वारा आपको प्रसन्न करेंगे ॥८॥ नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! यज्ञ के समय आपके द्वारा स्तोताओं के लिए दी गयी ऐश्वर्ययुक्त दक्षिणा निश्चित ही उत्तम धन प्राप्त कराती है। स्तोताओं के साथ हमें भी वह ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा प्रदान करें। हम यज्ञ में महान् पराक्रम प्रदान करने वाले स्तोत्रों का उच्चारण करें ॥९॥

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