ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ५१

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ५१ सूक्त ५१ ऋषिः स्वस्त्यात्रेयः देवता - विश्वेदेवा, ४, ६-७ इन्द्रवायु, ५ वायु । छंद - १-४ गायत्रीः, ५-१० उष्णिक्, ११-१३ जगती त्रिष्टुब्वा, १४-१५ अनुष्टुप अग्ने सुतस्य पीतये विश्वरूमेभिरा गहि । देवेभिर्हव्यदातये ॥१॥ हे अग्निदेव ! आप सोमरस का पान करने के निमित्त सभी संरक्षक देवों के साथ हव्य-प्रदाता यजमान के पास आयें ॥१॥ ऋतधीतय आ गत सत्यधर्माणो अध्वरम् । अग्नेः पिबत जिह्वया ॥२॥ हे सत्य स्तुति योग्य देवो! हे सत्य धारणकर्ता देवो ! आप सब हमारे यज्ञ में आयें। अग्नि की जिह्वा रूप ज्वालाओं द्वारा सोमरस अथवा घृतादि का पान करें ॥२॥ विप्रेभिर्विप्र सन्त्य प्रातर्यावभिरा गहि । देवेभिः सोमपीतये ॥३॥ हे मेधावी सेव्य (सेवा के योग्य) अग्निदेव ! आप प्रातः काल में आने वाले ज्ञानियों और देवों के साथ सोमपान के निमित्त यहाँ आये ॥३॥ अयं सोमश्चमू सुतोऽमत्रे परि षिच्यते । प्रिय इन्द्राय वायवे ॥४॥ पाषाणों द्वारा कूटकर अभिषुत हुआ सोम पात्रों में छानकर भरा जाता है। यह सोम इन्द्र और वायुदेवों के लिए अत्यन्त प्रीतिकर है ॥४॥ वायवा याहि वीतये जुषाणो हव्यदातये । पिबा सुतस्यान्धसो अभि प्रयः ॥५॥ हे वायुदेव ! सोम पान करने के लिए और विदाता यजमान की प्रीति के लिए आप हव्य प्राप्त करने पधारें; हविष्यान्न ग्रहण करें और अभिषुत सोम को पान करें ॥५॥ इन्द्रश्च वायवेषां सुतानां पीतिमर्हथः । ताञ्जुषेथामरेपसावभि प्रयः ॥६॥ हे वायुदेव ! आप और इन्द्रदेव इस अभिषुत हुए सोम का पान करने योग्य हैं। अहिंसक होकर आप आयें और हव्य रूप सोम का सेवन करें ॥६॥ सुता इन्द्राय वायवे सोमासो दध्याशिरः । निम्नं न यन्ति सिन्धवोऽभि प्रयः ॥७॥ इन्द्र और वायु देवों के लिए दधि मिश्रित सोमरस अभिषुत हुआ है। हे इन्द्र और वायुदेवो ! नीचे की ओर प्रवाहित नदियों के समान यह हविष्यान्न आपकी ओर ही जाता है ॥७॥ सजूर्विश्वभिर्देवेभिरश्विभ्यामुषसा सजूः । आ याह्यग्ने अत्रिवत्सुते रण ॥८॥ हे अग्निदेव ! सम्पूर्ण देवों के साथ अश्विनीकुमारों और उषा के साथ समान प्रीतियुक्त होकर इस यज्ञ में आगमन करें। जैसे अत्रि ऋषि यज्ञ में हर्षित होते हैं, वैसे आप हमारे अभिषुत सोम से हर्षित हों ॥८॥ सजूर्मित्रावरुणाभ्यां सजूः सोमेन विष्णुना । आ याह्यग्ने अत्रिवत्सुते रण ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप मित्र और वरुण के साथ तथा विष्णु और सोम के साथ हमारे यज्ञ में आगमन करें। जैसे अत्रि ऋषि यज्ञ में प्रमुदित होते हैं, वैसे ही आप भी हमारे अभिषुत सोम से प्रमुदित हों ॥९॥ सजूरादित्यैर्वसुभिः सजूरिन्द्रेण वायुना । आ याह्यग्ने अत्रिवत्सुते रण ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आप आदित्य और वसुओं के साथ तथा इन्द्र और वायु के साथ समान प्रीति युक्त होकर हमारे यज्ञ में आगमन करें। जैसे अत्रि ऋषि यज्ञ में हर्षित होते हैं, वैसे आप हमारे अभिषुत सोम से हर्षित हों ॥१०॥ स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः । स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ॥११॥ दोनों अश्विनीकुमार हमारे निमित्त कल्याण करें। भगदेवता और देवी अदिति हमारा कल्याण करें। अपराजित और प्राण दाता पूषादेव हमारा कल्याण करें । उत्तम ज्ञानी (प्रचेता) द्यावा-पृथिवी हमारा कल्याण करें ॥११॥ स्वस्तये वायुमुप ब्रवामहै सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः । बृहस्पतिं सर्वगणं स्वस्तये स्वस्तय आदित्यासो भवन्तु नः ॥१२॥ हम अपने कल्याण के लिए वायुदेव का स्तवन करते हैं। सम्पूर्ण भुवनों के अधिपति सोम की स्तुति हम कल्याण के लिए करते हैं। सर्वगणों के अधीश्वर बृहस्पतिदेव की स्तुति हम कल्याण के लिए करते हैं । देवरूप आदित्य के पुत्र, देवरूप अरुणादि द्वादशदेव हमारे लिए कल्याणकारी हों ॥१२॥ विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो वसुरग्निः स्वस्तये । देवा अवन्त्वृभवः स्वस्तये स्वस्ति नो रुद्रः पात्वंहसः ॥१३॥ इस यज्ञ में सम्पूर्ण देवगण हमारे कल्याण के रक्षक हों। सम्पूर्ण विश्व के नियामक और आश्रयदाता अग्निदेव हमारे कल्याण के रक्षक हों । दीप्तिमान् ऋभुगण हमारी रक्षा करते हुए कल्याणकारी हों । रुद्रदेव हमें पापों से रक्षित कर कल्याणकारी हों ॥१३॥ स्वस्ति मित्रावरुणा स्वस्ति पथ्ये रेवति । स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते कृधि ॥१४॥ हे मित्रावरुण देवो! आप हमारा कल्याण करें। हे मार्गप्रदर्शिका और धनवती देवि ! आप हमारा कल्याण करें। इन्द्र और अग्निदेव हमारा कल्याण करें। हे अदिति देवि ! आप हमारा कल्याण करें ॥१४॥ स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव । पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि ॥१५॥ सूर्य और चन्द्रमा के सदृश हम बाधारहित पथों के अनुगामी हों । निरन्तर दान से युक्त होकर, ज्ञान से युक्त होकर, परस्पर टकराव या हिंसा से रहित होकर हम सुखपूर्वक सहगमन करें ॥१५॥

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