ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६०

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६० ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- द्यावापृथ्वी। छंद - जगती ते हि द्यावापृथिवी विश्वशम्भुव ऋतावरी रजसो धारयत्कवी । सुजन्मनी धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणा सूर्यः शुचिः ॥१॥ द्यावा-पृथिवी विश्व के सुखों के आधार हैं और यज्ञ युक्त हैं। ये तेजस्वी, मेधावी जनों के संरक्षक, सर्व उत्पादक एवं ज्ञान से सम्पन्न हैं। इन दोनों के मध्य में सम्पूर्ण प्राणियों में पवित्र सूर्यदेव अपनी धारण क्षमताओं से युक्त होकर गमन करते हैं॥१॥ उरुव्यचसा महिनी असश्चता पिता माता च भुवनानि रक्षतः । सुधृष्टमे वपुष्ये न रोदसी पिता यत्सीमभि रूपैरवासयत् ॥२॥ क्योंकि पिता (द्युलोक) अपने दिव्य प्रकाश से मनुष्यों को आश्रय प्रदान करते हैं, अतएव ये अति सामर्थ्यवान् द्यावा-पृथिवीं सबको पुष्टि प्रदान करते हैं। अतिव्यापक, महिमामय और भिन्न-भिन्न प्रकृति वाले ये माता-पिता सभी लोकों के संरक्षक हैं॥२॥ स वह्निः पुत्रः पित्रोः पवित्रवान्पुनाति धीरो भुवनानि मायया । धेनुं च पृश्निं वृषभं सुरेतसं विश्वाहा शुक्रं पयो अस्य दुक्षत ॥३॥ माता-पिता के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को वहन करने वाले पुत्ररूप ज्ञानवान् सूर्यदेव अपनी सामर्थ्य से सम्पूर्ण लोकों में पवित्रता का संचार करते हैं। विविध रूपों वाली पृथिवी (धनु) और बलशाली द्युलोक (बैल) को पावन बनाते हुए वे आकाश से तेजस् बरसाकर सभी प्राणियों को परिपुष्ट करते हैं॥३॥ अयं देवानामपसामपस्तमो यो जजान रोदसी विश्वशम्भुवा । ्र वि यो ममे रजसी सुक्रतूययाजरेभिः स्कम्भनेभिः समानृचे ॥४॥ जिस देव (परमात्मा) ने संसार के लिए आनन्दप्रद द्युलोक एवं पृथ्वी का प्रादुर्भाव किया, जिसने श्रेष्ठ कर्मों की प्रेरणा से दोनों द्यावा-पृथिवी को संव्याप्त किया, जिन्होंने अजर-सुदृढ़ आधारों से दोनों लोकों को स्थिरता प्रदान की, ऐसे श्रेष्ठ कर्मशील देवों के बीच में अग्रगण्य वे देव (परमात्मा) स्तुत्य हैं॥४॥ ते नो गृणाने महिनी महि श्रवः क्षत्रं द्यावापृथिवी धासथो बृहत् । येनाभि कृष्टीस्ततनाम विश्वहा पनाय्यमोजो अस्मे समिन्वतम् ॥५॥ ये द्यावा-पृथिवी प्रसन्न होकर हमारे लिए प्रचुर अन्न और सामर्थ्य प्रदान करें, ताकि हम प्रजाजनों के विस्तार (प्रगति) में समर्थ हों। वे दोनों नित्य हमारे लिए उत्तम प्रेरणाओं से युक्त शक्ति प्रदान करें ॥५॥

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