ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ४६

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ४६ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रवायु, १ वायु । छंद - गायत्री अग्रं पिबा मधूनां सुतं वायो दिविष्टिषु । त्वं हि पूर्वपा असि ॥१॥ हे वायु देवता ! यज्ञों में आसीन होकर आप, निचोड़े गये मधुर सोमरस का सर्वप्रथम पान करें; क्योंकि आप सबसे पहले सोमरस का पान करने वाले हैं ॥१॥ शतेना नो अभिष्टिभिर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः । वायो सुतस्य तृम्पतम् ॥२॥ हे वायु देवता ! आप श्रेष्ठ अश्वों वाले हैं और इन्द्रदेव आपके सारथि हैं । आप कामनाओं को पूर्ण करने के लिए सैकड़ों अश्वों द्वारा हमारे समीप पधारें । आप तथा इन्द्रदेव अभिषुत सोमरस का पान करें ॥२॥ आ वां सहस्रं हरय इन्द्रवायू अभि प्रयः । वहन्तु सोमपीतये ॥३॥ हे इन्द्र और वायुदेवो ! आप दोनों को हजारों संख्या वाले घोड़े द्रुतगति से सोम पान के लिए ले आएँ ॥३॥ रथं हिरण्यवन्धुरमिन्द्रवायू स्वध्वरम् । आ हि स्थाथो दिविस्पृशम् ॥४॥ हे इन्द्र और वायुदेवो ! आप दोनों सोने से जड़े हुए, यज्ञ को भली- प्रकार सिद्ध करने वाले तथा अंतरिक्ष को स्पर्श करने वाले रथ पर आकर आसीन होते हैं ॥४॥ रथेन पृथुपाजसा दाश्वांसमुप गच्छतम् । इन्द्रवायू इहा गतम् ॥५॥ हे इन्द्र और वायुदेवो ! आप दोनों अत्यधिक सामर्थ्यशाली रथ के द्वारा हविप्रदाता यजमान के निकट गमन करें तथा इस यज्ञ मण्डप में पधारें ॥५॥ इन्द्रवायू अयं सुतस्तं देवेभिः सजोषसा । पिबतं दाशुषो गृहे ॥६॥ हे इन्द्र और वायुदेवो ! यह सोमरस आपके लिए अभिषुत किया गया है। देवताओं के साथ समान रूप से स्नेह करने वाले होकर आप दोनों हविप्रदाता यजमान के यज्ञ मण्डप में उसका पान करें ॥६॥ इह प्रयाणमस्तु वामिन्द्रवायू विमोचनम् । इह वां सोमपीतये ॥७॥ हे इन्द्र और वायुदेवो! आप दोनों का इस यज्ञ में पदार्पण हो । यहाँ पधार कर सोमपान के निमित्त आप दोनों अपने अश्वों को मुक्त करें ॥७ ॥

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