ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १८३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १८३ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप तं युज्ञ्जाथां मनसो यो जवीयान्त्रिवन्धुरो वृषणा यस्त्रिचक्रः । येनोपयाथः सुकृतो दुरोणं त्रिधातुना पतथो विर्न पर्णैः ॥१॥ हे सामर्थ्यवान् अश्विनीकुमारो ! आपका जो तीन पहियों वाला, तीन बैठने योग्य स्थान वाला, अत्यन्त गतिशील रथ है, उसे जोड़कर तैयार करें । तीन धातुओं से विनिर्मित रथ से पक्षी की तरह उड़कर आप दोनों श्रेष्ठ कर्मी के घर पर पहुँचते हैं॥१॥ सुवृद्रथो वर्तते यन्नभि क्षां यत्तिष्ठथः क्रतुमन्तानु पृक्षे । वपुर्वपुष्या सचतामियं गीर्दिवो दुहित्रोषसा सचेथे ॥२॥ हे अश्विनीकुमारो ! हमेशा सत्कर्म में तत्पर आप दोनों हविष्यान्न प्राप्त करने के लिए भूमि पर गतिमान अपने सुन्दर रथ से यज्ञस्थल पर पहुँचते हैं। आपकी महिमा का गान करने वाली स्तुतियाँ आपको हर्षित करें, आप दोनों द्युलोक की पुत्री उषा के साथ (प्रभात वेला में) ही प्रस्थान करते हैं॥२॥ आ तिष्ठतं सुवृतं यो रथो वामनु व्रतानि वर्तते हविष्मान् । येन नरा नासत्येषयध्यै वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च ॥३॥ हे सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! हविष्यान्नों से पूर्णरूपेण भरा हुआ आपका रथ, आप दोनों को अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए ले जाता है, उस सुन्दर वाहन (रथ) पर आप दोनों विराजमान हों और यजमान तथा उसकी सन्तानों को यज्ञ की प्रेरणा देने के लिए उनके घर पधारें ॥३॥ मा वां वृको मा वृकीरा दधर्षीन्मा परि वर्त्तमुत माति धक्तम् । अयं वां भागो निहित इयं गीर्दस्राविमे वां निधयो मधूनाम् ॥४॥ हे शत्रु संहारक अश्विनीकुमारो ! आपके लिए हविर्द्रव्य तैयार है, यह स्तुतियाँ आपके ही निमित्त हैं। मधु से पूर्ण पात्र आपके लिए तैयार हैं, आप हमारा परित्याग न करें और न ही अन्य किसी पर अनुदान बरसायें । आपकी कृपा से हमारे ऊपर वृक एवं वृकी हमला न करें ॥४॥ युवां गोतमः पुरुमीव्ळ्हो अत्रिर्दस्रा हवतेऽवसे हविष्मान् । दिशं न दिष्टामृजूयेव यन्ता मे हवं नासत्योप यातम् ॥५॥ हे शत्रुनाशक और सत्यनिष्ठ अश्विनीकुमारो ! हविष्यान्न अर्पित करते हुए गोतम, अत्रि और पुरुमीढ़ ये ऋषि अपने संरक्षण के लिए आपका आवाहन करते हैं। सरल मार्ग से जाने वाला जिस प्रकार अभीष्ट लक्ष्य पर सहज ढंग से पहुँचता है, उसी प्रकार हमारे आवाहन को सुनकर आप हमारे समीप पधारें ॥५॥ अतारिष्म तमसस्पारमस्य प्रति वां स्तोमो अश्विनावधायि । एह यातं पथिभिर्देवयानैर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥६॥ हे अश्विनीकुमारो ! हुम इस अन्धकार से पार हो गये हैं। आप दोनों के निमित्त ये स्तोत्रगान किये गये हैं। देवतागण जिस मार्ग से चलते हैं, आप उसी मार्ग से यहाँ पधारें तथा अन्न, बल और विजयश्री हमें शीघ्र प्रदान करें ॥६॥

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