ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १८

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १८ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- इन्द्रः । छंद- त्रिष्टुप, प्राता रथो नवो योजि सस्निश्चतुर्युगस्त्रिकशः सप्तरश्मिः । दशारित्रो मनुष्यः स्वर्षाः स इष्टिभिर्मतिभी रंह्यो भूत् ॥१॥ प्रातः काल यह नया रथ (यज्ञ) नियोजित किया गया है। इसमें चार युग, तीन कोड़े, सात रश्मियाँ तथा दस चक्र हैं। यह इष्ट प्रयोजनों के लिए मति के अनुरूप गतिमान हो। यह मनुष्यों को स्वर्ग तक पहुँचाने वाला है॥१॥ सास्मा अरं प्रथमं स द्वितीयमुतो तृतीयं मनुषः स होता । अन्यस्या गर्भमन्य ऊ जनन्त सो अन्येभिः सचते जेन्यो वृषा ॥२॥ यह रथ इन्द्रदेव को प्रथम, द्वितीय और तृतीय (अर्थात् प्रातः, सायं और मध्याह्न) तीनों सवनों में यज्ञों में पहुँचाने में समर्थ है। यह रथ मनुष्यों की कामनाओं को पूरा करने वाला है। स्तोतागण एक दूसरे के साथ मिलकर ब्रह्माण्डव्यापी, बलशाली तथा अजेय उन इन्द्रदेव के अनुग्रह को प्राप्त करते हैं॥२॥ हरी नु कं रथ इन्द्रस्य योजमायै सूक्तेन वचसा नवेन । मो षु त्वामत्र बहवो हि विप्रा नि रीरमन्यजमानासो अन्ये ॥३॥ इन्द्रदेव के सुखपूर्वक आवागमन के लिए उत्तम स्तुतियों के माध्यम से उनके रथ में दोनों घोड़ों को नियोजित किया गया है। हे इन्द्रदेव ! हमारे अतिरिक्त अन्य कोई भी मेधावी स्तोता आपको भली-भाँति तृप्त नहीं कर सकता ॥३॥ आ द्वाभ्यां हरिभ्यामिन्द्र याह्या चतुर्भिरा ष‌ड्भिहूयमानः । आष्टाभिर्दशभिः सोमपेयमयं सुतः सुमख मा मृधस्कः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! हमारे द्वारा आवाहित आप सोम-पान करने के लिए दो, चार, छ, आठ, दस घोड़ों से आयें। यह सोम रस आपके लिए शोधित किया गया है। आप इसका पान करें, इसके लिए युद्ध न करें ॥४॥ आ विंशत्या त्रिंशता याह्यर्वाङा चत्वारिंशता हरिभिर्युजानः । आ पञ्चाशता सुरथेभिरिन्द्रा षष्ट्या सप्तत्या सोमपेयम् ॥५॥ हे इन्द्रदेव आप सोमरस का पान करने के लिए रथ के योग्य बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ तथा सत्तर घोड़ों को नियोजित करके हमारे पास आयें ॥५॥ आशीत्या नवत्या याह्यर्वाङा शतेन हरिभिरुह्यमानः । अयं हि ते शुनहोत्रेषु सोम इन्द्र त्वाया परिषिक्तो मदाय ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आपको आनन्दित करने के लिए सोमरस को सुन्दर पात्रों में रखा गया है, अतः आप अस्सी, नब्बे और सौ घोड़ों को अपने रथ में नियोजित करके हमारे पास आयें ॥६॥ मम ब्रह्मेन्द्र याह्यच्छा विश्वा हरी धुरि धिष्वा रथस्य । पुरुत्रा हि विहव्यो बभूथास्मिञ्छूर सवने मादयस्व ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आप बहुतों के द्वारा आमन्त्रित किये गये हैं, अतः हमारे स्तोत्रों को स्वीकार करके अपने रथ में सभी घोड़ों को नियोजित करके हमारे इस यज्ञ में आकर आनन्दित हों ॥७॥ न म इन्द्रेण सख्यं वि योषदस्मभ्यमस्य दक्षिणा दुहीत । उप ज्येष्ठे वरूथे गभस्तौ प्रायेप्राये जिगीवांसः स्याम ॥८॥ इन्द्रदेव के साथ हमारी मैत्री अटूट रहे। हम उनके उत्तम दाहिने हाथ के समीप रहें। इन्द्रदेव के द्वारा हमें सदैव दान मिलता रहे । इनके संरक्षण में हम प्रत्येक युद्ध में विजय प्राप्त करें ॥८॥ नूनं सा ते प्रति वरं जरित्रे दुहीयदिन्द्र दक्षिणा मघोनी । शिक्षा स्तोतृभ्यो माति धग्भगो नो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥९॥ हे इन्द्रदेव! यज्ञ के समय आपके द्वारा स्तोताओं के निमित्त दी गयी ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा निश्चित रूप से धन प्रदान कराती है, अतः स्तोताओं के साथ हमें भी वह ऐश्वर्य युक्त दक्षिणा प्रदान करें, जिससे हम यज्ञ में महान् पराक्रम प्रदान करने वाले स्तोत्रों से स्तुतियाँ करें ॥९॥

Recommendations