ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११७

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ११७ ऋषि - कक्षीवान दैघतमस औशिजः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप मध्वः सोमस्याश्विना मदाय प्रत्नो होता विवासते वाम् । बर्हिष्मती रातिर्विश्रिता गीरिषा यातं नासत्योप वाजैः ॥१॥ हे सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो ! प्राचीन काल से आपकी सम्पूर्ण सेवा करने वाले आपके साधक, मधुर सोमरस के आनन्द को आपके लिए लाये हैं। हमारी प्रार्थनाएँ आप तक पहुँच गई हैं। इस कुशा के आसन पर आपके निमित्त सोमपात्र भरकर रखा है, अतः आप दोनों अपनी अन्न युक्तं शक्तियों के साथ हमारे पास आयें और हमारा सहयोग करें ॥१॥ यो वामश्विना मनसो जवीयात्रथः स्वश्वो विश आजिगाति । येन गच्छथः सुकृतो दुरोणं तेन नरा वर्तिरस्मभ्यं यातम् ॥२॥ नेतृत्व की क्षमता से सम्पन्न हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों के रथ मन से भी तीव्र गतिशील, उत्तम अश्वों से युक्त रहते हैं। ऐसे रथ आपको प्रजाजनों के बीच ले जाते हैं, उसी से सत्कर्मरत साधकों के घर आप जाते हैं, उसी रथ पर आरूढ़ होकर आप दोनों हमारे यहाँ पधारें ॥२॥ ऋषिं नरावंहसः पाञ्चजन्यमृबीसादत्रिं मुञ्चथो गणेन । मिनन्ता दस्योरशिवस्य माया अनुपूर्वं वृषणा चोदयन्ता ॥३॥ नेतृत्व प्रदान करने वाले है बलशाली अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने पंचजनों के कल्याण के निमित्त प्रयत्नशील अत्रि ऋषि को, पीड़ादायक कारावास से उनके सहयोगियों (अनुयायियों के साथ मुक्त कराया। शत्रुओं का संहार करने वाले आप दोनों शत्रु की विनाशकारी मायावी चालों को पहले से ही ज्ञात करके क्रमशः दूर करते हैं॥३॥ अश्वं न गूळ्हमश्विना दुरेवैर्ऋषिं नरा वृषणा रेभमप्सु । सं तं रिणीथो विप्रुतं दंसोभिर्न वां जूर्यन्ति पूर्व्या कृतानि ॥४॥ हे शक्तिशाली नेतृत्व प्रदान करने वाले अश्विनीकुमारो ! दुष्कर्मियों द्वारा जलों के मध्य फेंके गए ऋषि रेभ की अति दुर्बल देह को, आप दोनों ने अपने औषधि आदि उपचारों से विशेष हृष्ट-पुष्ट बना दिया । घोड़े जैसी सुदृढ़ देह से युक्त कर दिया। आपके जो पूर्वकृत कार्य हैं वे अविस्मरणीय हैं॥४॥ सुषुप्वांसं न निर्ऋतेरुपस्थे सूर्यं न दस्रा तमसि क्षियन्तम् । शुभे रुक्मं न दर्शतं निखातमुद्वपथुरश्विना वन्दनाय ॥५॥ हे अरि विध्वंसक अश्विनीकुमारो! जिस प्रकार आप अन्धकार में छिपे सूर्यदेव को उदय के पूर्व ऊपर लाते हैं, जिस प्रकार जमीन पर सोये पुरुष को ऊपर उठाते हैं अथवा भूमि के गर्त में पड़े हुए सुन्दर स्वर्ण के आभूषण को ऊपर धारण करते हैं, उसी प्रकार आप दोनों ने वन्दन को गर्त से बाहर निकाला ॥५॥ तद्वां नरा शंस्यं पज्रियेण कक्षीवता नासत्या परिज्मन् । शफादश्वस्य वाजिनो जनाय शतं कुम्भाँ असिञ्चतं मधूनाम् ॥६॥ हे सत्य से युक्त नेतृत्व प्रदान करने वाले अश्विनीकुमारों ! अंङ्गिरस गोत्र में पञ्च कुलोत्पन्न कक्षावान् ऋषि के निमित्त आपके कार्य अति प्रशंसनीय हैं, जो शक्तिशाली अश्व के खुर के समान महापात्र से आप दोनों ने मधु के सौ घड़ों को सभी मनुष्यों के पीने हेतु पूर्णरूप से भरकर तैयार रखा था ॥६॥ युवं नरा स्तुवते कृष्णियाय विष्णाप्वं ददथुर्विश्वकाय । घोषायै चित्पितृषदे दुरोणे पतिं जूर्यन्त्या अश्विनावदत्तम् ॥७॥ हे नेतृत्व प्रदान करने वाले अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने प्रार्थना करने वाले कृष्ण के पात्र तथा विश्वक के पुत्र विष्णाप्व को उसके पिता के पास पहुँचाया। पिता के गृह में ही रोगी और वृद्धा के रूप में रहने वाली को रोग मुक्त करके नवयुवती बनाकर सुयोग्य वर आप दोनों ने ही प्रदान किया ॥७॥ युवं श्यावाय रुशतीमदत्तं महः क्षोणस्याश्विना कण्वाय । प्रवाच्यं तदृषणा कृतं वां यन्नार्षदाय श्रवो अध्यधत्तम् ॥८॥ हे शक्ति सामर्थ्य युक्त अश्विनीकुमारो ! आप दोनों ने ही श्याव ऋषि को उत्तम तेजस्विनी स्त्री प्रदान की। नेत्रहीन कण्व को उत्तम ज्योति दी । नृषद पुत्र जो बधिर था, उसे सुनने की शक्ति प्रदान की। आप दोनों के ये सभी कार्य अति प्रशंसनीय हैं॥८॥ पुरू वर्षांस्यश्विना दधाना नि पेदव ऊहथुराशुमश्वम् । सहस्रसां वाजिनमप्रतीतमहिहनं श्रवस्यं तरुत्रम् ॥९॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों विभिन्न रूप धारण करके रमण करते हैं। आपने पेदु को विजयशील, शत्रुओं का विनाश करने वाला, असंख्य धनों को प्रदान करने वाला, कीर्तिमान, संरक्षण कर्ता, बलशाली तथा तीव्र गतिमान अश्व प्रदान किया ॥९॥ एतानि वां श्रवस्या सुदानू ब्रह्मा‌ङ्गुषं सदनं रोदस्योः । यद्वां पज्रासो अश्विना हवन्ते यातमिषा च विदुषे च वाजम् ॥१०॥ हे श्रेष्ठ दानदाता अश्विनीदेवो! आप दोनों के ये कर्म श्रवणीय हैं। आपके निमित्त वेद मन्त्र रूपी स्तोत्र बने हैं तथा आप दोनों स्वर्गलोक और पृथ्वीलोक दोनों स्थानों पर रहते हैं। हे अश्विनीदेवो ! क्योंकि आप दोनों को आङ्गिरस आवाहित करते हैं, अतएव अन्न के साथ आकर यजमान को भी अन्न बल प्रदान करें ॥१०॥ सूनोर्मानेनाश्विना गृणाना वाजं विप्राय भुरणा रदन्ता । अगस्त्ये ब्रह्मणा वावृधाना सं विश्पलां नासत्यारिणीतम् ॥११॥ हे सर्व पोषणकर्ता, सत्य से युक्त अश्विनीकुमारो ! आप दोनों से मान ने पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की, उस यजमान को पुत्रोत्पत्ति की सामर्थ्य प्रदान की। अगस्त्य के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर आपने विश्पला के भग्न पाँव को ठीक किया ॥११॥ कुह यान्ता सुष्टुतिं काव्यस्य दिवो नपाता वृषणा शयुत्रा । हिरण्यस्येव कलशं निखातमुद्वपथुर्दशमे अश्विनाहन् ॥१२॥ हे सामर्थ्यवान् अश्विनीकुमारो ! आप दोनों दिव्यलोक को स्थायित्व देने वाले और शेयु के संरक्षक हैं। शुक्र की प्रार्थना स्वीकार करने के बाद आप दोनों किस ओर जाते हैं ? कुएँ में पतित रेभ को दसवें दिन, गर्त में पड़े स्वर्ण कुम्भ के समान निकालने के पश्चात् आप दोनों कहाँ गये ? ॥१२॥ युवं च्यवानमश्विना जरन्तं पुनर्युवानं चक्रथुः शचीभिः । युवो रथं दुहिता सूर्यस्य सह श्रिया नासत्यावृणीत ॥१३॥ हे सत्य पर दृढ़ अश्विनीकुमारो! आप दोनों ने अपनी शक्ति सामथ्र्यों से अतिवृद्ध च्यवन ऋषि को पुनः तरुण बना दिया था। सूर्य की पुत्री ने अपने सौभाग्य सहित आप दोनों के रथ पर ही विराजमान होना स्वीकार किया था ॥१३॥ युवं तुग्राय पूव्र्येभिरेवैः पुनर्मन्यावभवतं युवाना । युवं भुज्युमर्णसो निः समुद्राद्विभिरूहथुऋजेभिरश्वैः ॥१४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों युवा तुग्र नरेश द्वारा पिछले समय में किये गये श्रेष्ठ कर्मों से पूजनीय थे ही; परन्तु अब जो उसके पुत्र भुज्यु को अथाह महासमुद्र से सुरक्षित करके पक्षी के समान उड़ने वाले अश्वों से युक्त यानों द्वारा उसके पिता के पास पहुँचाया, इससे तुम नरेश के लिए आप दोनों अत्यन्त सम्मानास्पद बन गये ॥१४॥ अजोहवीदश्विना तौग्यो वां प्रोळ्हः समुद्रमव्यथिर्जगन्वान् । निष्टमूहथुः सुयुजा रथेन मनोजवसा वृषणा स्वस्ति ॥१५॥ हे सामर्थ्यवान् अश्विनीकुमारो! तुग्र नरेश के पुत्र भुज्यु को सागर यात्रा हेतु भेजा गया था। वे बिना किसी कष्ट के वहाँ चले गये। जब उनने सहयोग के लिए आप दोनों का आवाहन किया तब उसे मन के समान गतिशील तथा श्रेष्ठ ढंग से जोते गये रथ द्वारा आप दोनों ने पिता के घर सकुशल पहुँचा दिया ॥१५॥ अजोहवीदश्विना वर्तिका वामास्त्रो यत्सीममुञ्चतं वृकस्य । वि जयुषा ययथुः सान्वद्रेर्जातं विष्वाचो अहतं विषेण ॥१६॥ हे अश्विनीकुमारो ! वर्तिका के आवाहन पर वहाँ पहुँचकर भेड़िये के मुख से आप दोनों ने मुक्त किया, ऐसे में वे अपने विजयी रथ से पर्वत के शिखर को पार करके पहुँचे। उसे घेरने वाले शत्रु के सैनिकों को आपने विष दग्ध वाणों से मार डाला ॥१६॥ शतं मेषान्वृक्ये मामहानं तमः प्रणीतमशिवेन पित्रा । आक्षी ऋज्राश्वे अश्विनावधत्तं ज्योतिरन्धाय चक्रथुर्विचक्षे ॥१७॥ ऋज्राश्व ने सौ भेड़ें, भेड़िये को भक्षणार्थ दीं, इससे कुद्ध होकर उसके पिता ने दृष्टिहीन (अन्धा) कर दिया। हे अश्विनीकुमारो ! उस ऋज्राश्व की दोनों आँखों में आपने ज्योति प्रदान की। दृष्टिहीन को दृष्टि प्राप्त हो, इस उद्देश्य से आप दोनों ने उसकी आँखों का पुनर्निर्माण कर दिया ॥१७॥ शुनमन्धाय भरमह्वयत्सा वृकीरश्विना वृषणा नरेति । जारः कनीन इव चक्षदान ऋज्राश्वः शतमेकं च मेषान् ॥१८॥ ऋज्राश्च के दृष्टिहीन होने पर वृकी उसके सुख के लिए इस प्रकार प्रार्थना करने लगी कि हे सामर्थ्यशाली नेतृत्व प्रदान करने वाले देवो ! तरुण जार के द्वारा तरुणी को सर्वस्व सौंप देने के समान बेसमझी में एक सौ एक भेड़े मेरे लिए भक्षण हेतु दी गई थीं ॥ १८ ॥ मही वामूतिरश्विना मयोभूरुत स्रामं धिष्ण्या सं रिणीथः । अथा युवामिदह्वयत्पुरंधिरागच्छतं सीं वृषणाववोभिः ॥१९॥ है ज्ञान सम्पन्न सामर्थ्यशाली अश्विनीकुमारो ! आप दोनों की संरक्षण शक्ति बड़ी कल्याणकारी हैं। आप अंग भंग (वालों) को भली प्रकार ठीक कर देते हैं। आप दोनों का ही श्रेष्ठ बुद्धिमती स्त्री ने आवाहन किया है कि अपनी संरक्षण सामथ्र्यों के साथ आयें ॥१९॥ अधेनुं दस्रा स्तर्यं विषक्तामपिन्वतं शयवे अश्विना गाम् । युवं शचीभिर्विमदाय जायां न्यूहथुः पुरुमित्रस्य योषाम् ॥२०॥ हे शत्रुनाशक अश्विनीकुमारो ! गर्भ धारण करने में असमर्थ, दुर्बल, दुग्धरहित गाय को शयु ऋषि के कल्याणार्थ आप दोनों ने दुधारू बना दिया। पुरु मित्र की पुत्री को विमद के लिए धर्मपत्नी रूप में आपने ही अपनी सामथ्र्यों से दिलवाया ॥ २०॥ यवं वृकेणाश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा । अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय ॥२१॥ हे शत्रु विनाशक अश्विनीकुमारो ! जौ आदि धान्य को हल से वपन करके मनुष्यों के लिए अन्न रस देते हुए और शत्रु को तेजधार वाले शस्त्र से विनष्ट करते हुए आप दोनों ही आर्यों के लिए विस्तृत प्रकाश दिखाते हैं॥२१॥ आथर्वणायाश्विना दधीचेऽव्यं शिरः प्रत्यैरयतम् । स वां मधु प्र वोचदृतायन्त्वाष्ट्रं यद्दस्रावपिकक्ष्यं वाम् ॥२२॥ हे शत्रु संहारक अश्विनीकुमारो ! अथर्वकुल में उत्पन्न दधीचि ऋषि के अश्व का सिर आप दोनों ने लगाया, तब उस ऋषि ने यज्ञ मार्ग को प्रसारित करते हुए आप दोनों को मधु विद्या का उपदेश दिया तथा आप दोनों को शरीर के भग्न अङ्गों को जोड़ने की विद्या भी सिखाई ॥२२॥ सदा कवी सुमतिमा चके वां विश्वा धियो अश्विना प्रावतं मे । अस्मे रयिं नासत्या बृहन्तमपत्यसाचं श्रुत्यं रराथाम् ॥२३॥ सत्य के प्रति स्थिर, कवि हे अश्विनीकुमारो! आप दोनों हमें सदैव सद्बुद्धि की प्ररेणा प्रदान करें। हमें सत्कर्मों और सज्ञान की ओर उत्तम रीति से प्रेरित करें। आप दोनों सुसन्तति से युक्त, श्रेष्ठ धनसम्पदा हमें प्रदान करें ॥२३॥ हिरण्यहस्तमश्विना रराणा पुत्रं नरा वध्रिमत्या अदत्तम् । त्रिधा ह श्यावमश्विना विकस्तमुज्जीवस ऐरयतं सुदानू ॥२४॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों श्रेष्ठ दानदाता, औदार्यपूर्ण और नेतृत्व क्षमता से सम्पन्न हैं। बाँझ स्त्री को पुत्रदान देकर उसके हाथों को स्वर्ण सम्पदा को धारण करने योग्य बनाया। जो श्याव तीन स्थानों से घायलावस्था में पड़े थे, उन्हें जीवनदान देने हेतु आप दोनों के द्वारा उत्तम ढंग से परिचर्या की गयी ॥२४॥ एतानि वामश्विना वीर्याणि प्र पूर्व्याण्यायवोऽवोचन् । ब्रह्म कृण्वन्तो वृषणा युवभ्यां सुवीरासो विदथमा वदेम ॥२५॥ हे सामर्थ्यवान् अश्विनीकुमारो ! आपके शौर्ययुक्त कर्मों की प्राचीन समय से ही सभी मनुष्य प्रशंसा करते रहे हैं। आप दोनों के निमित्त ही हमने इस स्तोत्र की रचना की है। इससे हम श्रेष्ठ वीर बनकर, सभाओं में प्रखर प्रवक्ता बनें ॥२५॥

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